भारत में लोकतंत्र को
पुन:स्थापित करने के लिए हमें वहुत से व्यक्तिगत हितों का बलिदान करना होगा.
नेहरु को भारत का
प्रधानमन्त्री क्यों बनाया गया.
क्या नेहरु उस समय के
सबसे बड़े नेता थे देश के क्या नेहरु का चुनाव लोकतंत्रिक तरीके से हुआ था.
मेरा मनना है कि भारत के पहले प्रधानमन्त्री मंत्री का
चयन लोकतंत्रिक तरीके से नहीं हुआ था. और आज तक भारत का कोई भी प्रधानमन्त्री
लोकतांत्रिक तरीके से नहीं चुना गया वल्कि या तो किसी के बर्चस्व की वजह से कोई
चुना गया या तो केन्द्रीय सरकार को समर्थन देने वाली पार्टियों के दवाव में हा
यहाँ या जरूर सही हुआ की जब समर्थन देने वाली पार्टी की दवाव में हुआ तब सरकारें
मनमानी नहीं करपायी परन्तु तब भी लोकतंत्र का सम्मान नहीं हुआ. नेहरु का चुनाव
दवाव में और देश को दोखे में रख कर गाँधी जी और भारत को भय दिखा कर हुआ. मै यह
नहीं कहता कि जिन्ना का चुनाव लोकतंत्रिक होता या नहीं. पर अगर लोकतंत्रिक तरीके
से भारत का प्रधानमन्त्री चुना जाता तो देश का वाट्वारा नहीं होता और उस समय की
संघीय विधान सभा में ३८५ में से कोई भी अन्य व्यक्ति भारत का प्रधानमन्त्री
चुना जा सकता था. जब मजदूर दल इंग्लैंड में १९४५ में सत्ता में आई तो भारत में
प्रांतीय चुनाव हुए. इंग्लैंड से मंत्रियों का पर्तिनिधि मंडल भारत आया और
कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से मिला. १६ मई १९४६ को एक फार्मूला प्रकाशित
हुआ. और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने ६ जून को और कांग्रेस ने २६ जून को इसको पूर्ण
रूप से स्वीकार था. परन्तु व्यक्ति वादी विचारधारा जो प्रारंभ से थी उसने हमारे
स्वतंत्रता आन्दोलन को बहुत नुकसान किया. संबिधान सभा के चुनाव के बाद ६ दिसंबर
१९४६ को पहला अधिवेशन हुआ. परन्तु नेहरु के २ सितम्बर १९४६ को
अंतरिम सरकार के प्रधान मंत्री बनने और मुस्लिम लीग के सरकार में सम्मिलित
न होने से स्थिति बहुत नाजुक थी पर
मुस्लिम लीग ने अंत में अंतरिम सरकार में १३ अक्टूबर को निर्णय लिया की सरकार में
सामिल होगी और १५ अक्टूबर को सरकार में सामिल हुयी और यह सरकार १४-१५ अगस्त तक
चली.
परन्तु जिस लोकतंत्रिक
व्यवस्था को संबिधान सभा ने अपनाया उसके बनने के पहले ही भारत का बिभाजन तय कर
दिया गया और उसकी बजह सिर्फ लोकतंत्रिक तरीको का किताबी होना उसको चरित्र में न
अपनाना है.
भारत के बिभाजन के बाद १५
अगस्त १९४७ के बाद संबिधान सभा कार्य करती रही और फरवरी १९४८ को ड्राफ्ट (मसौदा)
तैयार हो गया और २६ नवम्बर को अंतिम रूप दे दिया गया और यह २६
जनवरी १९५० को लागू हो गया. और सविधान ने भारत को लोतान्त्रत्मक गणराज्य बनाया.
परन्तु देश की आजादी के समय की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाये देश को गलत रस्ते पर आयीं. आज भी देश आंदोलित
है परन्तु लोगो की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा इस आन्दोलन को प्रभावित कर रहीं हैं.
कोई आरोप लगता है कि अरविन्द महत्वाकांक्षी है और व्यक्तिगत स्वार्थों से ग्रस्त
हैं ओ कुछ लोगो की मंडली द्वारा संचालित हैं. उन पर आरोप है कि ओ तानाशाही
व्यक्तिव वाले इन्सान है. मेरा मन्ना है कि ओ इन्सान है और उन पर इंसानी दोषों का प्रभाव हो सकता है. पर यह बहुत
जल्द बाजी होगी इसतरह के आरोपों पर अंतिम निर्णय लेना. पर आम आदमी पार्टी में आज
के समय के युवा और प्रतिष्ठित व्यकित्यों द्वारा सदस्यता ग्रहण किया जा रहा है. हो
सकता है की जिन लोगोने सुरुवाती समय में अच्छे उद्देश्यों से आन्दोलन को राजनातिक
रूप दिया है ओ भी राजनीति की बुराइयों से ग्रष्ठ हो जाये. परन्तु अगर हम सिर्फ
इतना कर ले कि लोकतंत्रिक प्रदाली किताबी न रह कर प्रभावी रूप ले ले तो आम आदमी
पार्टी में इस तरह के आरोपों की जगह नहीं रहेगी क्यूंकि इसतरह की गतिविधियों को
अमलीजामा कोई नहीं देसकता चाहे ओ अरविन्द केजरीवाल हों या कोई और. व्यक्ति
व्यवस्था से वादा नहीं हो सकता. व्यक्ति व्यवस्था के लिए और व्यवस्था में रह सकता
है. हाँ यह सम्भावना प्रबल है की जैसे इससे पहले किताबी लोकतंत्र ६७ सालो तक चला ओ
आगे भी चले. पर आज के आम आदमी को यह जिम्मे दरी लेनी होगी कि अगर कोई आवाज उठती है
तो उसको दबाया न जाय बल्कि जहाँ से आवाज आये उसको समझने की कोसिस की जय.
हमें व्यक्ति विशेष से
ज्यादा उम्मीद नहीं रखनी चाहिए उम्मीद व्यवस्था से रखिये क्युओं कि आज जो आन्दोलन खड़ा
हुआ है उसकी उम्र मात्र २ साल हुए है और इतना बड़ा परिवर्तन एक व्यक्ति नहीं ला
सकता था अगर हमारी किताबी लोकतंत्रिक व्यवस्था लागू ना होती और आम आदमी को उसमे
विश्वास न होता. लोकतंत्र में विश्वास तो देश में स्वराज आएगा पर इतिहास से सबक
लेना पड़ेगा व्यक्तिवादी न बने हम और लोकतात्रिक को मजबूत करें.
हम को बताया गया है कि
गाँधी जी ने जन आकांक्षाओं के बिपरीत नेहरु को बनने के लिए सरदार को राजेंद्र
प्रसाद को और कई को हतोह्तासहुत किया.
जैसा आज कल भी होता आया है और साडी समस्याओं का जड जो
भारतीय लोकतंत्र को देखना पद रहा है वह कि हम आज तक एक तरह की गलती हमेशा करते आ
रहे है जिसके वजह से आज हमारा लोकतन्त्र न रह कर राजतन्त्र का प्रतीक बन कर रह गया
है. हम इतिहास से सिख सकते है और सीखना भी चाहिए इसमें कोई गलती नहीं है भारत के
भविष्य के लिए हर वो कार्य किया जाना चाहिए जिससे भारत सच्चा लोकतंत्रात्मक
गणराज्य बन सके.
इतिहास के पन्नो में भारत
में 1946 के चुनावों में कांग्रेस ने अधिकतम संख्या के सीटों की जीता था और अंतरिम
सरकार कांग्रेस अध्यक्ष की अध्यक्षता में किया गठन किया जाना था . यह स्वतंत्र
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनने के लिए जा रहा था , अचानक कांग्रेस
अध्यक्ष का पद बहुत महत्वपूर्ण बन गया था. उस समय, मौलाना अबुल कलाम
आजाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे . वास्तव में, वह चुनाव भारत
आंदोलन , द्वितीय विश्व युद्ध और कई नेताओं के सलाखों के
पीछे होने के कारण 1940 के बाद से कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नहीं ठहरा जा सकता
था इस लिए मौलाना अबुल कलाम आजाद कांग्रेस पार्टी के पिछले छह साल से अध्यक्ष थे .
हर व्यक्ति की देश प्रेम के साथ अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा होती है इसमें कोई
गलती नहीं है.
मौलाना अबुल कलाम आजाद भी
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव जीतने में रुचि थी , लेकिन महात्मा
गांधी ने मंजूरी नहीं दी और साफ शब्दों
में सबको कहा नेहरू कांग्रेस अध्यक्ष के पद के लिए उनकी पहली पसंद हैं . परन्तु
नामांकन 15 राज्य / क्षेत्रीय कांग्रेस समितियों द्वारा किया जाना था परन्तु गांधी
के खुले तौर पर वरीयता बताने के बाद भी एक भी कांग्रेस कमेटी ने नेहरू को मनोनीत
किया. परन्तु इसके विपरीत, 12 में से 15 कांग्रेस
समितियों सरदार वल्लभ भाई पटेल को नामित किया. शेष तीन कांग्रेस समितियों ने किसी
के नाम को मनोनीत नहीं किया. जाहिर है, और भारी बहुमत सरदार पटेल के पक्ष में था. यह
स्थिति लोकतंत्र को मजबूत करने वाली थी परन्तु व्यतिगत इच्छा और पसंद जिसे देश हित
में छोड़ देना चाहिए जो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने छोड़ दी उसको अब फिर चुनैती थी.
महात्मा की व्यक्तिगत इच्छा चाहे वह उनकी अपने लिए नहीं थी देश के लिए और देश के
लोकतंत्र के लिए घातक साबित होने वाली थी. यह जन्त्ये हुए की केवल प्रदेश की कांग्रेस समितियों अध्यक्ष मनोनीत कर सकती है
परन्तु गाँधी ने आचार्य जेबी कृपलानी से काग्रेस कार्य समिति के सदस्यों से नेहरू
के लिए कुछ प्रस्तावकों का इंतजाम करने के लिए कहा. कृपलानी पार्टी अध्यक्ष के
नामांकन के लिए नेहरू के नाम का प्रस्ताव करने के लिए कुछ काग्रेस कार्य समिति
सदस्यों को राजी किया. गांधी जी द्वारा किया गया यह कार्य हमें आपको अनैतिक लग
सकता है. पर गाँधी जी को अगर अपनी व्यक्तिगत जीवन के अनुभव से नेहरु सही लगते रहे
होंगे या यह उनका स्नेह रहा होगा. हम महात्मा को सम्मान करते है उनके इस निर्णय को
सम्मान करते है.
परन्तु इस अनुभव को अब
दुबारा भारत में न दोहराया जाय इस के लिए जरूरी है व्यक्ति विशेष को महत्व देने के
वजाय संस्था को महत्व डदेना ही संस्था और देश हित में है. लोकतंत्र में व्यन्तिगत
अनुभव को महत्व नहीं देना चाहिए. और इस आन्दोलन में जो आज भारत के लगभग १ करोड़
जनता आम आदमी पार्टी के साथ चला रही है उसके भविष्य के लिये यह बहुत जरूरी है कि
किसी व्यक्ति विशेष के अनुभव के आधार पर निर्णय न लिए जाय. यह इस आन्दोलन के लिउए
घातक है. इसमें बिन्नी या अरविन्द या अशितोश या शाजिया या कुमार विश्वास के अपने
लिए लिए या पार्टी के लिए निर्णय तब तक प्रभावी नहीं करना चाहिए जब तक निर्णय लेने
वाली इकाई जो अधिकृत हो ओ न लेले. इसमें किशी प्रकार का व्यतिगत स्वाभिमान भी
बीच में नहीं आना चाहिए. चाहे ओ अरविन्द
या बिन्नी का हो. मै बिन्नी का जिक्र इस लिए कर रहा हूँ कि बिन्नी के पहली प्रेस
कांफ्रेंस के पहली शाम अरविन्द ने मीडिया में उनके (बिन्नी) द्वारा लोकसभा का टिकट
मांगने की बात उजागर कर दी. अगर स्क्रीनिंग कमिटी को निर्णय लेना था तो उसको इस के
लिए तब तक इसबात का निर्णय नहीं लेना था कि बिन्नी को लोकसभा नहीं लड़ना है. बिन्नी
को अपना नॉमिनेशन भरना चाहिए था और उसको भरने देना चाहिए था परन्तु व्यक्तिगत पसंद
और निर्णयों को महत्व देने की वजह से असहज स्थिति आगई और बिन्नी को पार्टी से
निष्कासित करना पड़ा. जो पार्टी के अन्दर की लोकतंत्रिक व्यवस्था को कमजोर करता है.
आज ही मैंने किसी न्यूज़ पेपर में पढ़ा है की आशुतोष कहाँ से लड़ सकते है. जहा. से भी
बीजेपी अध्यक्ष लोकसभा चुनाव लड़ेंगे आशुतोष वहां से लड़ेंगे क्या यह प्रक्रिया
अलोकतंत्रिक नहीं है. शाजिया इलमी रायबरेली से लड़ेंगी यह पहले ही प्रेस में आगया
उनके द्वारा खुद. क्या यह लोकतंत्रिक है. क्या यह इनलोगों को प्रभावित नहीं करेगा
जो अपना नॉमिनेशन भरना चाहते है क्या यह स्क्रीनिंग समिति को प्रभावित नहीं करेगा.
मै जो कुछ भी ल्लिख रहा हूँ आम आदमी पार्टी के हितों को ध्यान में रख कर लिख रहा
हूं क्यूंकि आम आदमी इस पार्टी से लोकतंत्रिक व्यवस्था को देश में पुनःस्थापित
करने का भरोसा देखती है. हो सकता है कभी कभी छोटे- छोटे व्यक्तिगत नुकसान हो जाये
परन्तु संस्था और उसकी लोकतंत्रिक व्यवस्था को नुकसान नहीं होने देना चाहिए.
नेहरु को प्रतिष्ठित करने
के चक्कर में भारत में नेहरु का खुद का वंश राजवंश को स्थापित कर लिया. महात्मा जी
को इस का अहसाह नहीं रहा होगा. व्यक्ति विशेष का अपमान नहीं होना चाहिए परन्तु
संस्था के हित को सुरक्षित रखते हुए. किसी को खुश करने के लिए या किसी ने हमारा
व्यतिगत या कुछ लोगो का व्यक्तिगत अपमान कर दिया इस लिए हम लोकतंत्रिक व्यवस्था को
ध्वस्त नही कर सकते. लोकतंत्र को पुन:स्थापित करने के लिए हमें वहुत से व्यक्तिगत
हितों की तिलान्जलि देनी पड़ सकती है.
गांधी हमेशा नेहरू के
आधुनिक दृष्टिकोण के साथ प्रभावित थे. हम
को व्यक्तिगत दृष्टिकोण को लोक दृष्टिकोण में परिवर्तित करना आना तो चाहिए परन्तु
लोकदृष्टि को अपना दृष्टिकोण बनाना आना चाहिए जो अरविन्द ने किया. अरविन्द ने ये
अलख जगाई है लोक हित में तो इसे बुझने नहीं देना है.
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